5 Best Poems Collection | कविता-संग्रह | “जीवन-सार”

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आशीष भटनागर द्वारा रचित –

प्रिय पाठकों ! साहित्य (Literature) कैटेगरी में हमारा कविता-संग्रह का यह प्रथम प्रकाशन आपके समक्ष प्रस्तुत है। दोस्तों यह संकलन मनुष्य के जीवन-दर्शन से प्रेरित है, आप हमारे ब्लॉग की साहित्य कैटेगरी में इसे पढ़ रहे हैं तो इसका अर्थ है आप साहित्य व काव्य रचनाओं को पढ़ना पसंद करते हैं, तो दोस्तों, आपसे गुज़ारिश है कि प्लीज़ 5 Best Poems Collection | कविता-संग्रह | “जीवन-सार” की इन रचनाओं को लेखक ने जिस मनोभावों के साथ लिखा है , आप भी गंभीरता से उसी मनःस्थिति के साथ इन रचनाओं का रसास्वादन करें तभी रचनाकार की ये कृति लिखने की सार्थकता है।

व्यथित मन की वेदना

जिन्दगी तू थम क्यों नहीं जाती, चिर निंद्रा में तू सो क्यों नहीं जाती,

थक चुका हूँ अब मैं भागते भागते, तुझे समेटने को यूँ जागते जागते,

इस आपा धापी के कोलाहल की लोरियों में तू खो क्यों नहीं जाती,

जिन्दगी तू सो क्यों नहीं जाती।

पीछे मुड़कर देखता हूँ  तो तेरे साथ बीते पल मुस्कुरा उठते हैं,

जीवन की उस कच्ची धूप को याद कर हम भी गुनगुना उठते हैं,

लेकिन अब इस साँझ के अन्धकार से डर लगता है,

इस एकाकी सन्नाटे की गूँज से दिल काँप उठता है,

इन रोज के थपेड़ों की थपकियों से तू सो क्यों नहीं जाती,

जिन्दगी तू थम क्यों नहीं जाती,…

उस तपते निर्जन वीरान रेगिस्तान में कँटीले वृक्ष की तरह,

अथाह अनन्त खारे समन्दर में प्यासे पथिक की तरह,

उस पतझर में तरु से विरक्त पाँत की तरह,

बारम्बार व्यथित हो तू जम क्यों नहीं जाती,

जिन्दगी तू थम क्यों नहीं जाती, चिर निंद्रा मे सो क्यों नहीं जाती…


**आशीष भटनागर **

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Poem Collection जीवन-सार
कविता संग्रह , जीवन-सार

शब्द ही ना मिले ( कविता-संग्रह )( Poem Collection )

जीवन में कितनी ही बार,

जाने कितने अवसर आये,

जब बहुत कुछ कहना चाहा,

पर शब्द ही ना मिले….

छात्र जीवन के वो मित्र, 

जो हर क्षण मेरे संग रहे,

निराशा और परेशानी में, 

हमेशा मेरे अंतरंग रहे,

हर बार सोचा उन्हें कुछ कहूँ ,

पर शब्द ही ना मिले…

कॉलेज की वो मित्र

जिसे देख कर दिल धड़कता था

हर पल मिलने को मन मचलता था

सोचा उसको बोल दूँ,

दिल के राज खोल दूँ,

पर उफ़्फ़, ये शब्द ही ना मिले…

मेरे पिता जो हर संघर्ष में मेरे साथ थे, 

मेरे प्रेरणास्रोत और मेरे आदर्श थे, 

मेरे पथप्रदर्शक मेरे दिशानिर्देशक,

वो अब मेरे साथ नहीं हैं,

सोचता था अपने उद्गार उनसे साझा करूँ, 

थोड़ी उनकी सुनूँ, बहुत सी अपनी कहूँ,

पर जब भी मुँह खोलना चाहा, 

कुछ बोलना चाहा, 

ये कम्बख्त शब्द ही ना मिले…

सोचता हूँ अब भी कितने हैं मेरे साथ,

मेरी जीवन-संगिनी, मेरी अर्धांगिनी,

मेरी राजदार,

मेरे सभी सम्बन्धी, मेरे साथी,

और मेरा सारा परिवार,

ये सब ही तो हैं मेरे शुभचिन्तक, 

इन्ही में है मेरा सारा संसार,

हर दम सोचता हूँ, कि कुछ कहूँ,

मन के जज़्बात उनसे साझा करूँ,

पर क्या करूँ, 

जब भी कुछ बोलना चाहा,

जब भी मुँह खोलना चाहा,

ये शब्द ही ना मिले,

हर बार बस शब्द ही ना मिले….


**आशीष भटनागर **

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उम्र अब पकने लगी है

ढलती छाँव में ज़िन्दगी कुछ थकने लगी है,

लगता है कुछ उम्र भी अब पकने लगी है,

कब तक चलूँगा, जाने कब रुक जाऊँगा,

जिन्दगी भी कुछ इशारा करने लगी है।

तक़दीर और तदबीर में बस रार रहती है,

तदबीर जाने क्यों मेरी बस हार जाती है,

तदबीर की तक़दीर में ये ही लिखा है,

वो भी भाग्य के भरोसे रहने लगी है।

काँच के सपने लिए बस आ गये,

इन पत्थरों के बीच जाने कब तलक,

मै रहूँगा या मेरे सपने रहेंगे,

मौत से अब ज़िन्दगी डरने लगी है।

तन्हाई की खामोशियों से मन भर चला है,

घुटन की चादर उतार फेंकने को मन कर चला है,

पर मुट्ठी के रेत सी ज़िन्दगी सरकने लगी है।

लगता है कुछ उम्र भी अब पकने लगी है।


**आशीष भटनागर **

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एक था बचपन

एक था बचपन….

एक था बचपन, एक था बचपन,

बचपन के एक काका जी थे,

उलझाए से घबराए से

नन्हीं परी को गोद मे लेकर

पगलाए से,

मेरी बिटिया बर्फी-बर्फी,

मेरे काका लड्डू-लड्डू,

गाते गाते बचपन थोड़ा बड़ा हो गया,

नन्हें पैरों पर जाने कब खड़ा हो गया,

पर काका जी तो काका जी थे,

गोद मे लेकर खाना खिलाते,

दूध पिलाते, चैती दिखाते,

रोने पर वो गाय दिखाते,

दशहरे पर रावण दिखाते,

लगता था ये समय यहीं पर थम जायेगा,

वक्त का पहिया चलते चलते रुक जाएगा,

पर समय किसी के कहने पर भई कब रुकता है

सब, सारा कुछ समय समय पर खुद होता है,

बचपन अब स्कूल में पहुँचा,

रोता बिलखता आगे बढ़ता,

धीरे धीरे समय के पहिये चलते रहते,

एक से दूसरी कक्षा में वो बढ़ते रहते,

पेन्सिल जाने कब बदलकर पेन हो गया,

ए बी सी डी कब बढ़कर आइंस्टाइन हो गया,

पढ़ाई के संघर्षों में उलझा हुआ वो बचपन,

काका जी के साथ वो पढ़ता हुआ वो बचपन,

एक था बचपन, एक था बचपन,

स्कूल से बढ़कर कॉलेज पहुँचा,

कॉलेज से फिर आगे आगे,

दिल करता है क्या वो बचपन फिर लौटेगा,

समय का पहिया क्या फिर से उलटा घूमेगा,

घूमेगा पर उसके लिये भी समय लगेगा,

कुछ सालों के बाद वही पल फिर से सजेगा,

नन्हीं किलकारियाँ गोद मे फिर झूमेंगी,

बूढ़े काका जी को फिर से जवां करेंगी,

नये रूप में लौटेगा जब फिर से बचपन,

काका जी की गोद मे आएगा वो बचपन,

उसके साथ में वही गीत फिर से गाएंगे,

काका जी फिर वही लाइनें दोहराएंगे,

एक है बचपन…

एक है बचपन, एक है बचपन,

बचपन के एक नाना जी हैं,

बचपन के एक नाना जी हैं….


**आशीष भटनागर **

भाई आप नहीं हो….

सब कुछ फ़िर पहले जैसा है, 

बस भाई आप नहीं हो,

प्यार से गले लगाने को, 

बस भाई आप नहीं हो,

चहल पहल फिर वैसी है,

हवा भी पहले जैसी है,

गर्मी के दिन फिर आयेंगे,

बादल फ़िर वो ही छायेंगे,

बारिश में साथ नहाने को,

पर भाई साथ नहीं हो,

साथ में खुशी मनाने को,

बस भाई आप नहीं हो,

त्यौहार भी सारे आयेंगे,

सब ओर खुशी मनाएंगे,

होली में रंग लगाने को,

दीपों की माला सजाने को,

बस भाई साथ नहीं हो,

साथ में खुशी मनाने को,

बस भाई आप नहीं हो,

जब भी मैं गलती करता था,

बस आपका डर एक रहता था,

सही गलत समझाते थे,

सही राह दिखलाते थे,

अब सच्ची राह दिखाने को,

बस भाई साथ नहीं हो,

मेरे गाल पे थाप लगाने को,

बस भाई आप नहीं हो …


**आशीष भटनागर **

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“ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर जियें । “

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